ब्रह्म सत्यम / अनुराधा सिंह
मैं सोना चाहती थी
सोने नहीं दिया गया
दरवाज़ा खड़कता रहा
फोन की घंटी बजती रही
लोग अचानक याद आ गए संदेशे भेजते रहे
धूल भी एक सायरन की तरह चीखती हुई दर्ज़ हो रही थी घर में
जबकि मेरे जागे रहने की दरकार नहीं थी
दुनिया में समूची घृणा प्रबंध और लूट
बिना किसी हस्तक्षेप कार्यान्वित हो रहे थे
जहाँ मैं दिख रही थी
वहाँ भी एक पेपर क्लिप की तरह नगण्य थी
फिर भी लोग चाहते थे मेरा जगा रहना
भारी पलकों से
सबको खाना खाते चाय सुड़कते देखती रही
मेरी भूख पर नींद हावी थी
वाशिंग मशीन में बदरंग कपड़े भरती निकालती रही
जबकि दुनिया मुद्रास्फीति की दामी केंचुल बदल रही थी
यों तमाम बरस जबरन आँखें खुली रखने के बाद भी
आरोप है कि चेतना सोयी रही मेरी
जैसे अंतरात्मा और ज़मीर सोये रहते हैं
खुली आँखें देखकर भी ईश्वर ने पूछा अक्सर
सो गयीं क्या ?
ईश्वर, जो सचमुच जाग गयी तो ज़मीर बेच दूँगी औने पौने
फोन उठाने संदेशे पढ़ने शुरू कर दूँगी
दरवाज़ा खोल कर देखूँगी कि
घंटी बजाने वाला आख़िर चाहता क्या है
सोने दो मुझे
क्योंकि बाज़ार भी चाहता है
सोया रहे विवेक
खुली रहें आँखें