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भतृहरि का आम / गीता शर्मा बित्थारिया

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जो भी होते है
किसी प्रेम में
वो स्वयं से अधिक
सुखी देखना चाहते हैं
अपने प्रिय को
जो सुख होते हैं उनके निमित्त
वे भी कर दिए जाते हैं
हस्तांतरित
गुपचुप तरीके से

राजा से रानी
रानी से मंत्री
मंत्री से गणिका
गणिका से फिर राजा तक
जा पहुंचता है प्रेम का फल

प्रेम में जिसे हम अहम मानते हैं
वो किसी और को ही
लुटाता है अपना सर्वस्व
कदाचित रचता है
वैराग्य की
ये पूर्व प्रस्तावना
मगर स्त्रियां पृथक हैं
वे तो हमेशा ही
अपने हिस्से का सुख
किसी और को ही
दे देती हैं सहर्ष
जो उन तक कभी नहीं आता है
लौट कर

स्त्रियों का सौभाग्य
इसी ऊहापोह में हो जाता कैद
बनना चाहती है हर प्रेमिका एक पत्नी
और प्रेमिका सा प्रेम खोजती है हर पत्नी
और प्रेम फल प्रिय पुरुषों को ही
हस्तांतरित करती रहती हैं स्त्रियां
और स्वयं रह जाती हैं प्रेम से वंचित

स्त्रियों को सीख लेना चाहिए अब
एक नया नियम
गर चाहती हैं चखना प्रेम का अप्रतिम स्वाद
स्त्रियों को स्त्रियों तक भी पहुंचाना होगा
ये प्रेम फल
तभी लौट के आयेगा उन तक
उनके हिस्से का प्रेम फल उन तक