भय / रश्मि भारद्वाज
भय लौट आता है बार-बार
पहली बार टपका था यह नासमझ आँखों से
जब एक उन्मादी भीड़ के हाथ में आई थी कुल्हाड़ियाँ और हथौड़े
नानी के भजन भए प्रगट कृपाला से निकलकर
सच में प्रकट हो जाने की ख़बरों के बीच
हमने भी खेल-खेल में लगाए थे नारे
जब केसरिया बाना ओढ़े उमड़ा था एक सैलाब
राम नाम की हुँकार से दिशाएँ सहमी थीं
किसी अनहोनी की आशंका से
यह दौड़ गया था शिराओं में
जब कुछ झुलसी हुई हथेलियों को देखकर
भय से मुन्द आई थी आँखें
हाथ जुड़ गए थे एक अनजानी प्रार्थना के साथ
अगली बार भय कहते ही
प्रतिध्वनि वापस आई गुजरात
सैकड़ों चेहरों से टपका डर
हमारा ख़ून सर्द हो गया
और आँखें शर्म से नीची
अपने चोर मन को कोसा बार-बार
जब एक पहचान डर का पर्याय बनती रही धीरे-धीरे
बसों, ट्रेनों, सड़कों पर उसे चलते देख कर उमड़ आए सन्देह को कुचलते रहे हम
आँखों के आगे तैर आते रहे अक्सर
टूटी हैण्डिल के प्याले , बदरंग चीनी मिट्टी की थालियाँ
रसोई के बाहर बाक़ी बर्तनों से अलग
जिन्हें धोने से पहले बड़बड़ाती कामवाली
डाल देती थी पहले ढेर सारी राख
हम गढ़े जा रहे थे
वही भय आज फिर लौट आया है
जब कहीं से कुछ सुन आई बच्ची
बिखरे सिरों को जोड़ कर एक तस्वीर बनाना चाहती है
बेचैनी से पूछती है
हम कौन हैं
मेरा धीरे से बुदबुदाना इंसान उसे आश्वस्त नहीं करता
वह समझना चाहती है उन अलग-अलग ताबूतों को
जिन पर अपनी ज़रूरतों के हिसाब से कीलें ठोक कर
ताउम्र वो हमें ज़िन्दा दफ़न रखना चाहते हैं घुटी हुई चीख़ों के साथ
बन्द आँखों और जुड़े हुए हाथों के साथ
भय के साथ