भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भर रही अंग में थी अनंग-मद सिहर लहर पुरवईया की / प्रेम नारायण 'पंकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
भर रही अंग में थी अनंग-मद सिहर लहर पुरवईया की।
लगता कदम्ब की डाल-डाल पर मुरली बजी कन्हैया की।
घन की बूँदों ने भिंगो दिया कीर्तिदा कुमारी की काया ।
प्रिय संग घटी वृन्दावन की सुधियों का ज्वर उमड़ आया।
केकी-नर्तन था इधर, उधर थिरकती जलद में थी चपला।
नभ अवनि-बीच घी धूम रहे चुप कैसे, चीख उठी अबला।
"हो ललित त्रिभंग! कहाँ विकला बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥४॥