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भविष्य की आँखें / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
आतुर और अधीर
अचानक धीरजधारी
पर्वत पर जब तड़प-तड़प
दामिनी पुकारी
खड्गधार की प्रभा
रक्त की जगमग-जगमग
से भर गया समूचा अग-जग
उठी अचानक
जाने कब से बाट जोहती
फूटी धारा
बहती जैसे राह टोहती
अन्धकार ही अन्धकार था उस प्रकाश में
हाथ उठाकर छुआ गगन
था वहीं पास में
तपता तवा
कि जिस पर तारे भून रहा था
सात नहीं उनचास रंग का सूरज
करता अट्टहास था
वह भी बिल्कुल
कहीं पास था
लेकिन आँखें नहीं किसी के पास बची थीं
तितली बनकर सबकी आँखें
रितु बसन्त में डूब चुकी थीं
अमरबेल के फूलों का रस पीकर वे भी
फूल बन चुकीं थीं
आने वाले बसन्त के
अब वे हमको वर्तमान में नहीं
भविष्यत् में देखेंगी
वे देखेंगी हमको जब
तब देख सकेंगे हम भी ख़ुद को
लेकिन तब हम क्या देखेंगे ?