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भाग 14 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि

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कवित्त

सीस पर आपके सुबर्न को फिरत छत्र,
ताकों काटि डारौ अबकी तो बेर हमनै।
बहुत दिनाँ तें म्यों निमक तिहारौ, तातैं-
काट्यौ नाहिँ सीस, छोड़ दियौ है धनी गनै।
यातें टरि जाउ, डेरा कूच करि जाउ हाल,
नाहीँ तौ अबै करौं बिहाल को करै मनै।
ऐसो लिख रुक्का, तीर मार्यो लग्यो छत्र, दंड-
कटिकै गिरो है साह आगे टूक द्वै बनै॥137॥

छत्र के कटत बादसाह भयो कंपमान
देख्यौ एक रुक्का बंध्यौ लिखौ भयो तीर में।
खोलकर बाँच्यो, हिय माच्यो डर घोर महा,
जाच्यो निज काल, परे बुरी तदबीर में।
वाही समै हुकम दियो है डेरा कूच करौ,
चढ़िकै मतंग चल्यो, डूब रह्यो पीर में।
सुधि ना सरीर में, लग्यो है ध्यान तीर में, सु-
डूब्यो जाय नीर में, कियो अधीर मीर मैं॥138॥

दोहा

राजा के द्वै बंधु हैं, सगे नहीं पर साख।
मिलत हुते वे पुस्त में, नृप सों है रिस चाख॥139॥

कवित्त

रनपालदेव औ’ कृपालदेव नाम दोऊ,
मिले बादसाह सों नज़र लैकै राह में।
कीजे मत कूच, गढ़ दीखत है ऊँच, हम-
भेदी हैं वहाँ के, रहे बैठि अरगाह में।
गढ़ को उड़ाऊँ, इक पल में जिताऊँ तुम्हें,
सुरँग लगाऊँ औ’ बताऊँ ठौर ठाह में।
ऐसे नृपबंधुन सुनायो बोल जोर कर,
तबै साह मुड़िकै चल्यौ है उतसाह में॥140॥

दोहा

डेराफिर कीनो उहाँ, पातसाह ने जाय।
सुरँग लगाई भेद सों, जहँ उन दई बताय॥141॥

आधो किलो जु उड़ि गयो, लग्यो सुरँग को जोर।
नृप हिय उपज्यो सोच अति, बादसाह सुख घोर॥142॥