भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाग 15 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रसवाल

गिरे टूटि बुजैं, कई आय नीचै।
किते सिर जुदे ही, पड़े आँख मींचै॥143॥

दोहा

तब बिचार नरनाह ने, लिये मुसाहिब बोल।
सबके मुखन सलाह करि, आयो एकहि डोल॥144॥

बाहर कटि लड़ियै अबै, और न कछू उपाय।
यहि कहि नृप माँ पै गयो, पद सिर नायौ जाय॥145॥

माता महरानी अबै, देहु असीसा मोहि।
लड़ौं जायकै साह सों, होय बड़ाई तोहि॥146॥

छन्द

माता दई पीठ थापी जबै है।
कहा छत्रियों का धरम तो अबै है॥
कियो पुत्र तेनै भलो ही विचारं।
जुटो जाय अरि तें बिजै है तुम्हारं॥147॥

न कीजो पिछै पाँव, आगे सिधैयो।
असल छत्रियों में जु साखा कहैयो॥
कहा कर सकै साह आकर सबेरो।
बड़ो सूर सामर्थ तू पूत मेरो॥148॥

दोहा

हाथ जोर सिर नाय कै, बिदा भये नरनाह।
गये महल रानी जहाँ, बैठीं सबै सचाह॥149॥

कहीं सबै रानीन तें, खुसि रहियो हरि ध्यान।
हम जाते हैं जुद्ध में, तुमरो है भगवान॥150॥

मो माता की सासना, दीजौ कभूँ न टार।
जीवित आयो जुद्ध तें, तौ करिहों सु बिहार॥151॥