भाग 4 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि
दोहा
ताहि समै आयो तहाँ, कठिन केहरी एक।
देख मीर मंगोल ने, हिय में धारी टेक॥32॥
आसन राख्यो मैलिकै, कटिहू हालत जाय।
कर कमान सर लै हन्यौ, केहरि दियौ गिराय॥33॥
चौपाई
भई मुदित मरहट्टी जबै। इन आसन छोड्यो नहिँ तबै।
जिय विचार मरहट्टी कियो। या सम मर्द न कोई वियो॥34॥
दोहा
हन्यो केहरी ढिँग पर्यो, कियौ करै ये केलि।
सीना सों सीना मिला, लब सों लब कों मेलि॥35॥
काम केलि कर कै उठी, कही कि अब हम जात।
खुशी रहौ अरु यह करौ, फिर मिलिबे की घात॥36॥
महिमा मीर मंगोल तब, कही सुनो इक अर्ज।
काहू तें कहियो नहीं, हिय करि रखियो दर्ज॥37॥
छन्द
जो पै कदाचित कहौ ही कहूँ,
खबर पहले दीजे जहाँ मैं रहूँ।
खबर आवने से बचूँ चंद रोज,
ठिकाना कहीं और लेऊँगा खोज॥38॥
दोहा
मरहट्टी आई महल, गयो मीर निज गेह।
उसी रात को साह ने, ताहि लगाई देह॥39॥
कवित्त
पौढ़े परजंक पर बादसाह चाह भरे,
संग मरहट्टी के लगे सु केलि करनै।
ताहि समैं चूहा उहाँ, निकस्यो अचानक ही,
साह छोड़े आसन, सरासन पकरनै।
तानि करि ताको, कान ताँई, बान छोड़े तापै,
द्वै इक न लागे तब लाग्यो कोप करनै।
फेरि तीजे तानिकै निदान मारि लियो वाहि,
लागे आप आपुनो पराक्रम उचरनै॥40॥