भादों में लगातार भीगते हुए / शहंशाह आलम
भादो में लगातार भीगते हुए
अपने शरीर को लेकर
हम शर्मिंदा नहीं हैं
इसलिए कि ऋतुओं ने ही
हमें जि़ंदा रहना सिखाया है
हम शर्मिंदा नहीं हैं कि हमने
बाज़ार लगाने वालों की बजाय
अन्न उपजाने वालों के लिए गीत लिखे
हमने विरोध की रोज़ नई कलाएं
विकसित कीं आकाश के नीचे धरती पर
हम तुम्हारी क्रूरता की कथाओं पर नहीं
प्रेमिका की देह की मिट्टी पर
चमत्कृत हुए रोमांचित हुए
हम दिल्ली की संसद नहीं गए देखने
बल्कि घूम आए कलकत्ते का
विक्टोरिया मेमोरियल
दुख और दुर्दिन को भुलाकर
हम शब्दों की फिक्र किए
हम वाक्यों की फिक्र किए
हम छन्दों की फिक्र किए
हम ने जब भी गाया जत्थों में गाया
हम ने जब भी सोचा जत्थों में सोचा
तुम रहे एकांतप्रिय लोहे तांबे से डरे
तुम रहे भयानक विचारों में मुस्तैद
तुम ने तोड़े घर हमारे रास्ते हमारे स्वप्न हमारे
हम ने तोड़े सन्नाटे और भय और झूठ
और उस तानाशाह के विचार पूरी ताक़त से।