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भाभीजी नमस्ते / गोपालप्रसाद व्यास

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'भाभीजी, नमस्ते!'
'आओ लाला, बैठो!' बोलीं भाभी हंसते-हंसते।
'भाभी, भय्या कहाँ गए हैं?' 'टेढ़े-मेढ़े रस्ते!'
'तभी तुम्हारे मुरझाए हैं भाभीजी, गुलदस्ते!'
'अक्सर संध्या को पुरुषों के सिर पर सींग उकसते!'
'रस्सी तुड़ा भाग ही जाते, हारी कसते-कसते!'
'लेकिन सधे कबूतर भाभी, नहीं कहीं भी फंसते!
अपनी छतरी पर ही जमते, ज्यों अक्षर पर मस्ते!'
'भाभीजी, नमस्ते!'

चला सिलसिला रस का!
'बैठो, अभी बना लाती हूँ लाला, शर्बत खस का।'
'भाभी, शर्बत नहीं चाहिए, है बातों का चसका।'
'लेकिन तुमसे मगज मारना देवर, किसके बस का?'
भाभी का यह वाक्य हमारे दिल में सिल-सा कसका।
तभी लगाया भाभीजी ने हौले से यूँ मसका-
'ओहो, शर्बत नहीं चलेगा? वाह, तुम्हारा ठसका!'
'कलुआ रे, रसगुल्ले ले आ! ये ले पत्ता दस का!'
चला सिलसिला रस का।

भाभी जी का लटका!
कलुआ लेकर नोट न जाने कौन गली में भटका?
बार-बार अब हम लेते थे दरवाजे पर खटका।
बतरस-लोभी चित्त हमारा, रसगुल्लों में अटका।
कुरता छू भाभी जी बोली, 'खूब सिलाया मटका।'
'लेकिन हम तो देख रहे हैं ब्लाउज नरगिस-कट का।'
आँखों-आँखों भाभीजी ने हमको हसंकर हटका।
'ये नरगिस का चक्कर लाला, होता है सकंट का।'
भाभी जी का लटका!

'भाभी बड़ी सलौनी।
बंगाली में भालो-भालो, पंजाबी में सौनी।
ऐसी स्वस्थ, सनेह-चीकनी, ज्यों माखन की लौनी।
अतिशय चारु चपल अनियारी, मानो मृग की छौनी।
पत्नी ठंडा भात, कि साली भी बेहद मिरचौनी।
लेकिन मेरी भाभी जैसे रस की भरी भगौनी।
ऐसी मीठी, ऐसी मनहर, ऐसी नौनी-नौनी।
घंटाघर पर मिलती जैसे, दही-बड़े की दौनी।
भाभी बड़ी सलौनी।

देवर बड़ा रंगीला।
कोई मजनूं होगा, लेकिन यह मजनूं का टीला।
पैंट पहनता चिपका-चिपका, कोट पहनता ढीला।
ऐसी चलता चाल कि जैसे बन्ना हो शर्मीला।
वैसे तो यह बड़ा बहादुर, बनता है बमदीला।
पर घर में बीवी के डर से रहता पीला-पीला।
बाहर से है सूखा-सूखा, अंदर गीला-गीला।
मधुबाला को भूल गया अब भाती इसे शकीला।
देवर बड़ा रंगीला।

'भाभी मेरे मन की
बात सुनो!' 'क्यों सुनूं, महाशय! तुम हो पूरे सनकी!'
'किस सन्‌ की बाबत कहती हो?' वह बोली, 'पचपन की।
जब कमीज़ से नाक पोंछते, याद करो बचपन की।
टुकुर-टुकुर क्या देख रहे हो?' 'सुंदरता कंकन की।'
'कंकन कुंडल नहीं चीन्हते, कथा याद लछमन की?'
बतरस की ग़ज़लों में सहसा आई टेक भजन की।
दरवाजे पर भय्या आए हमने पा-लागन की।
भाभी मेरे मन की।