भारत ग्राम / सुमित्रानंदन पंत
सारा भारत है आज एक रे महा ग्राम!
हैं मानचित्र ग्रामों के, उसके प्रथित नगर
ग्रामीण हृदय में उसके शिक्षित संस्कृत नर,
जीवन पर जिनका दृष्टि कोण प्राकृत, बर्बर,
वे सामाजिक जन नहीं, व्यक्ति हैं अहंकाम।
है वही क्षुद्र चेतना, व्यक्तिगत राग द्वेष,
लघु स्वार्थ वही, अधिकार सत्व तृष्णा अशेष,
आदर्श, अंधविश्वास वही,--हो सभ्य वेश,
संचालित करते जीवन जन का क्षुधा काम।
वे परंपरा प्रेमी, परिवर्तन से विभीत,
ईश्वर परोक्ष से ग्रस्त, भाग्य के दास क्रीत,
कुल जाति कीर्ति प्रिय उन्हें, नहीं मनुजत्व प्रीत,
भव प्रगति मार्ग में उनके पूर्ण धरा विराम।
लौकिक से नहीं, अलौकिक से है उन्हें प्रीति,
वे पाप पुण्य संत्रस्त, कर्म गति पर प्रतीति
उपचेतन मन से पीड़ित, जीवन उन्हें ईति,
है स्वर्ग मुक्ति कामना, मर्त्य से नहीं काम।
आदिम मानव करता अब भी जन में निवास,
सामूहिक संज्ञा का जिसकी न हुआ विकास,
जन जीवी जन दारिद्रय दुःख के बने ग्रास,
परवशा यहाँ की चर्म सती ललना ललाम!
जन द्विपद: कर सके देश काल को नहीं विजित,
वे वाष्प वायु यानों से हुए नहीं विकसित,
वे वर्ग जीव, जिनसे जीवन साधन अधिकृत,
लालायित करते उन्हें वही धन, धरणि, धाम।
ललकार रहा जग को भौतिक विज्ञान आज,
मानव को निर्मित करना होगा नव समाज,
विद्युत औ’ वाष्प करेंगे जन निर्माण काज,
सामूहिक मंगल हो समान: समदृष्टि राम!
रचनाकाल: दिसंबर’ ३९