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भाव, आखर अर कविता / महेन्द्र मील

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म्हारै हियै में
भावां रो भूंगळ्यो बैवै
आखर-आखर ऊकळै
छंद-बंध छिटकाय
तातै हिवड़ै नैं सरसावण
जेठ री पैली बिरखा ज्यूं
कविता
कागद माथै दड़ादड़ औसरै।
कविता मंड्यां पछै
अंतस में धपळको उठै
मोकळा भाव सांचरै
भावां रै ओळै-दोळै
कविता रो कपास कातीजै।
 
आखर
जूना आखर
भाळ पड़्योड़ा
तूटी टापरी में सिसकै
अर भाव
भूंगळ्यै ज्यूं
रिंधरोही में भटकै आखरां सारू
पण आखर लाधै कोनी
ओ तो अबखो कारज
आ ई तो ऐ’ळी सोध
कियां पार पड़ै!
 
कागद रै कोठै
आखरां री आंट सूं
स्याही री संकळाई रै पाण
कविता रा कमठाण रोपीजै,
जद-जद जागै
अंतस री ऊरमा सूं
भावां रो भूंगळ्यो
तद कविता रचीजै।