भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भावों का सागर जब उमड़े / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भावों का सागर जब उमड़े,
मन में अति मंथन होता है
कवि के मानस में कविता का,
अपने आप सर्जन होता है
 
भूखे प्यासे लोग तड़पते
शिशु अनाथ बन जहाँ बिलखते
भोजन वसन मकान बिना जब
परिश्रमी जन खूब तरसते
शोकाकुल पीड़ित मानव का,
जब रोदन-क्रंदन होता है
 
निर्बल निर्धन रोते हैं जब
शेष धैर्य भी खोते हैं जब
मान-प्रतिष्ठा भी खोने पर
बीज आस के बोते हैं जब
शोषक अत्याचारी का जब,
कहीं नग्न नर्तन होता है
 
प्रतिभाषाली लोग भटकते
फाँसी पर अभिशप्त लटकते
अपनी व्यथा छिपाए हरदम
देख व्यवस्था नित्य सुबकते
ज्ञानीजन को त्याग मूर्ख का,
प्रायः अभिनन्दन होता है
 
विकसित हो सौन्दर्य भावना
हो न किसी से कभी वंचना
भ्रातृभाव हो पूर्ण विश्व में
सभी सुखी हों यही कामना
स्वस्थ समुन्नत यह धरती हो,
मन से यह चिन्तन होता है
 
लोभी क्रोधी काम पिपासा
मात्र स्वार्थ की हो जिज्ञासा
सजग रहें ऐसे लोगों से
एक कृष्ण से कर लें आसा
विहित कर्म करते जब मन से,
सतत् कृष्ण वन्दन होता है