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भाषा तो प्रवहित सलिला है / संजीव वर्मा ‘सलिल’

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भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर, अवगाहो या करो आचमन
.
जीव सभ्यता ने ध्वनियों को
जब पहचाना
चेतनता ने भाव प्रगट कर
जुड़ना जाना

भावों ने हरकर अभाव हर
सचमुच माना-
मिलने-जुलने से नव
रचना करना ठाना.

ध्वनि-अंकन हित अक्षर आये
शब्द बनाये, मानव ने नित कर नव चिंतन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन
.
सलिला की कल कल कल
सुनकर मन हर्षाया
साँय-साँय सुन पवन
झकोरों की उठ धाया

चमक दामिनी की जब देखी,
तब भय खाया,
संगी पा, अपनी-उसकी
कह-सुन हर्षाया.

हुआ अचंभित, विस्मित, चिंतित,
कभी प्रफुल्लित और कभी उन्मन अभिव्यंजन
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन
.
कितने पकडे, कितने छूटे
शब्द कहाँ-कब?
कितने सिरजे, कितने लूटे
भाव बता रब.

अपना कौन?, पराया
किसको कहो कहें अब?
आये-गए कहाँ से कितने
जो बोलें लब.

थाती, परिपाटी, परंपरा
कुछ भी बोलो पर पालो सबसे अपनापन.
भाषा तो प्रवहित सलिला है
आओ! तट पर,
अवगाहो या करो आचमन