भिनसहरे / नज़ीर बनारसी
गरे में डारि के किरिनन के हार भिनसहरे
ऊ रोज आवै लैं गंगा के पार भिनसहरे
रहींला घाट प हम, सूर्य जब उदै होलैं
करींला एक नजर जा के चार भिनसहरे
परान देहलों प केहू खरीद नाहिं सकत
लगैला सुन्नरियन के बजार भिनसहरे
चमक-चमक के लहरिया उठैला गंगा में
ठुमक-ठुमक के चलेला बयार भिनसहरे
सरीर घाट प डोलेला नाव के नाईं
रहेला मौज में जियरा हमार भिनसहरे
अन्हरिया देखि के अँखियन से तोर उजियरिया
तोरे दुआरे पटकलस कपार भिनसहरे
सुरुज के ओट से निसदिन ई ताक-झाँक तोहर
घरे से हमके लियावेला यार भिनसहरे
तू ई बतावऽ कि रतिया कहाँ बितावेलऽ
देखाइ देला सुरतिया तहार भिनसहरे
जो सुनलीं ध्यान से, मनवा हमार झूमि गयल
लहर-लहर जे बजवलस सितार भिनसहरे
हिरदै से जे के लगल हौ उहै करी दरसन
सबै दुआर बनी हरिदुआर भिनसहरे
के जाई उनके जगावे बदे, ऊ खिसियालिन
तू काहे आके सतावेलऽ यार भिनसहरे
पात-पात प लिखलीं जे रात के पाती
किरिन के तार प भेजेला तार भिनसहरे
ई के के सुरुजनरायन दिखावेले ऐना
ई कौन रोज करेला सिंगार भिनसहरे
ऊ सरवा राते धतूरा मिला के देलस का?
भँवर के नाईं झुमवलस कपार भिनसहरे
हईं सुनले हमउँ कि रोज-रोज निपटे बदै
नजीर आवेले गंगा के पार भिनसहरे