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भीतर का पक्षी/ प्रताप नारायण सिंह

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आज सुबह दर्पण में देखा
तो स्वयं का ही प्रतिबिम्ब अपरिचित लगा,
मानो मेरे काँधों पर
किसी और का बोझ रख दिया गया हो।

जब हवा ने
मेरे चेहरे को छुआ,
तो मुझे आभास हुआ कि
मेरे अन्तः में
कोई अन्य गीत बज रहा है।

कभी लगता है,
मैं पत्तों की सरसराहट हूँ,
तो कभी धूप का टुकड़ा,
जो मटमैली भीत पर गिरकर
पीले रंगों में पिघल जाता है।

मैंने गौर किया—
एक गौरैया मेरी बालकनी में
तिनके समेट रही थी,
बिलकुल सजग, सचेत, फुर्तीली,
उसकी आँखों में थकान नहीं थी,
अपितु, एक दृढ़ उजाला।

मैंने सोचा—
क्या मेरी भी आँखों में
वैसा ही उजाला हो सकता है?
और फिर लगा,
मेरे भीतर कोई पक्षी
पंख फड़फड़ाकर
उड़ने के लिए तैयार है
सीमाओं से परे,
नाम और पहचान से परे।

कभी फूल,
कभी परछाई,
कभी मौन—
इन सबके बीच
मैं हर बार नया जन्म लेता हूँ।