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भीम बैठका की नील दोपहर / पूनम अरोड़ा 'श्री श्री'

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हम अपने में इतने स्पष्ट थे
कि मौन थे.
हमारी कविताएँ हमारे पूर्व की स्मृतियाँ थीं.

यह मैंने भीम बैठका की गुफाओं में
एक कवि के साथ चलते हुए महसूस किया.

कहीं विरक्त आकाश का अशांत टुकड़ा था.
तो कहीं लंबी घास में छुपी छोटी तितलियाँ और पतंगे.

सब कुछ सुनने की लालसा में
धीरे-धीरे फैल रहा था.
वहीं कुछ स्पष्ट आवाज़ें भी थीं.
पीले शिखरों से टकराकर मुझ तक लौट आ रही थीं.

मुझे आश्चर्य तो नहीं था.
इस असीम नील दोपहर में
एक कवि के साथ होने का.
हाँ, सुख की उष्ण पीली किरणें मेरे साथ थीं हर क्षण.

तब मैंने जाना
कि हर लगाव उतना ही विशाल हृदय का होता है
जितना कभी हम हो जाते हैं
अपनी कविता के प्रति क्षमाशील.

वह कवि था या कोई और
उत्तर किसे तलाशना है अब?