भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भुरूकवा उगत / मथुरा प्रसाद 'नवीन'
Kavita Kosh से
जिहवा पर के नोन
अब घाव पर उतरै बाला हे
समझ लिहा कि
देस के दसा अब सुतरै बाला हे
हम ढिढोरा तो नै पीट सकऽ ही
हम सिंघा बजा सकऽ ही
द्रौपदी के
साड़ी खिंचै बाला के
सारा सजा सकऽ ही
धक... धक... धक
करेजा करऽ हो
तब तो कोमल हो
कोय दुस्मन से दोमल हो
हम तोहर हित हियो
हतास होला से की
ऐसै बढ़रायल नै रहतो बाढ़र
तनी बतास होला से की
केतना दिन सकबा
उगवे करतो भुरूकवा
तोहर पेट के आग
उठ के चल चुकलो हे