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भूतास्तिभवि / रामनरेश पाठक

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किसी भी
कहीं के भी अनाथालय के काले दर्पण में
अपने किशोर-मुख की छवि निहारना
किसी भी
कहीं के भी कुएँ के तलांत पर अंकित या प्रतिबिंबित
काले चुप पानी पर
दुख को अलग कर देना
दूसरे-तीसरे का दुख समझकर

किसी भी
कहीं के भी बगीचे या घर में ज्वर नहीं है
अवरोध है मुझमें ही सबकुछ के प्रति
घर और बगीचे से एकन्वित नहीं ही हो पाना ही है
मेरी एकमात्र नियति
मेरी आँखों के आगे
कई खुली और जीवित खिड़कियाँ हैं
किसी कमरे या मेज को नहीं ले जातीं

पाट दिए गए कुएँ
भर दिए गए पोखर और तालाब
स्याही के कई पेड़
कोष्ठकों में विभाजित मैं

कोष्ठक हृदय (?) का लाल
मस्तिष्क का पीतहरित या दर्शन-सा भूरा
देह का कभी गुलाबी, कभी कपिश
संवादी, विसंवादी, प्रतिवादी स्वरों में विभक्त
अतीत और वर्तमान और भविष्य
इतिहास और सभ्यता और संस्कृति
दिक् और काल और मृत्यु
कभी शिशु वत हठी
कभी युवा से उन्मत्त विद्रोही
कभी सिसृक्षा की पीड़ा से दहकते
कभी विनाश के लिए उदग्र
व्यक्ति बन जाते हैं

प्यार तिथि है
अतिथि नहीं

मुद्राओं के घर
घटनाओं के बगीचे
यहीं हैं मुखर मेरी ओर से
इनमें ही है देह और नदियाँ और समंदर
मोमबत्तियाँ, परछाईयाँ, और इकाइयाँ
मुखौटे, अभिनय और संकल्प
खुले दरवाजे और बंद खिड़कियाँ
छायातप और हवाओं की नदियाँ
रक्त और रंग की लय और छंद

इनमें ही हैं स्वर और मिथक, यात्राएँ और युद्ध
दूरियों के स्रष्टा विज्ञान और दर्शन

अकेला हूं मैं
सपनों की सुबह का अकेला
अनजान हर सबेरे या बसेरे से
घर और बगीचे से परे
उत्तर से हीन
बर्फ की मरूभूमियों में भटकता
किसी भी सृजन से विरक्त

विचार और अनुभूति के अवकाश में जीवित
लोग और जगहें और स्थितियाँ और शब्द
विराट अनअस्तित्व में संलीन
प्रत्येक लय और छंद के अनुगमन में
नील लोहित कैशौर्य के कोहरे की धुंध को बिना फाड़े
मैं तुम्हारे और तुम्हारे और तुम्हारे पास गया
प्यार और आसक्ति के साथ
कविता और गीतों के साथ
शराब और नृत्य के साथ
फूलों और सिक्कों के साथ
मगर मैं भटकता रहा उन जंगलों में जो
पढ़ाई-घरों, खाना-घरों, नाच-घरों
विचार-घरों, समारोह और उत्सव-घरों
पर्व-घरों और भोज-घरों और लीला-घरों के आसपास
फैले थे निष्कासित

मैं कहीं किसी को लूटने नहीं गया था
किसी को बलात् अधिकृत करने
या तेज हरण करने भी नहीं

केवल...केवल अपनी महत् भद्रता के साथ
उनके अस्तित्व के स्वगत को छूने
उनके अंतराल के भूकंपलिख के निकट
जहाँ गुलाब की पृष्ठभूमि पर
उजले कुछ फूल थे
जाने की सुकरता निबाही थी

परंतु सभी मेरे सूरज से अनजान रहे
विवाह की रासायनिक चिंगारियों से अनभिज्ञ
अपने ही सपनों के प्रति अनुत्सुक

गीतिल मोड़ और कई-कई विदा
हर बार झूठा एक मैं
और एकरस कामलीलाएँ
संवृत कविताएँ और देह के रहस्य
विचारों के नाट्य मंच और गोपनीय ज्ञान
बार-बार पारदर्शी बच्चे और काम के समुद्र
विराग की चुंबक-दीवार में चुन लिए गए
रेफ्रिजरेटर से अवधानों के केक निकालकर
मेज़ों पर सजा दिए गए

काल की अर्थवत्ता अपस्मारित हुई
यथार्थ की छोटी-सी मुखहीन घड़ी ने बताया
काल और दुख के आत्मीय संबंध
और इतिहास और साहित्य और कला को
समर्पित हुए केवल टूटे सिलसिले
शब्दों की नदियाँ...मूर्तियों के जंगल
व्यक्तित्वों के पिरामिड, प्रत्येक परिचिति से रहित
निर्मम-निर्वेद की पारदर्शिता, कामुक संभंग
मांस और चर्म की सोयी दीवारें
आग की जीभ, भावुकता की दाहक तरलता
अवशेषों से भरी हुई देह-सर्पमीन
सांवैगिक मरूभुमियों में धंस गए

और तब से...तब से
मैं लगातार नाचता रहा हूँ
अनधिकृति का एक तिर्यक्...तिर्यक् नाच
एक होने के खतरे से दूर...दूर...दूर...दूर