भूमिका / धुआँ / डॉ. हुकुमपाल सिंह विकल
कविता मनुष्य के हृदय को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित बंधनों से मुक्का कर लोक सामान्य की भूमि पर लाकर खड़ा करने की शक्ति रखती है। सही तो यह है कि वह अपनी सत्ता की लोक सत्ता में विलीन करने का रखती है की अनुभूति ही लोक सत्ता की अनुभूति होती है। यही कारण है कि इस अनुभूति जन्य योग के कारण कविता एक ओर कवि के हृदय को छूती है और उसी रूप में दूसरी ओर लोक सामान्य के हृदय का परिष्कार भी करती है। जो कविता अपने कवि के साथ-साथ लोक के साथ भी तादाम्त्य स्थापित करने का साहस रखती है, सही में यह कविता होती है। तभी तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कविता कोख्या करते हुए लिखा है कि जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है, उसी को कविता कहा जाता है"। जो कविता अपने साथ एक व्यापक प्रयोजन लेकर चलती है है, उसी को कविता कहा जाता है, जो अपनी रसानुभूति के साथ-साथ रस के साधारणीकरण को अपना बनाती हुई लोक दल को भी रसानुभूति की अनुभूति कराती है। यही कारण है कविता सत्यम शिवम् सुन्दरम् के भाव बोध पर खरी उतरती है। कविता एक ऐसी उड़ान है जो कल्पना के पंखों पर उड़ती हुई भी यथार्थ की धरा भूमि पर विचरण करती है। प्रस्तुत काव्य संग्रह "धुआँ" की यह लम्बी कविता, वास्तव में हो काव्य बोध का सच्चा उदाहरण हैं। इस कृति के 'रचयिता' वास्तव में ही बड़ी गहराई के उदीयमान कवि हैं, जो केवल कविता के लिए जीते हैं। उनका काव्यबोध निश्चित ही प्रत्येक जीवन का काव्यबोध है। तभी वे "धुआँ" को प्रतीक बनाते हुए सारी सृष्टि की संरचना को सार्थक सिद्ध करने में जुटे हैं। वे मौसम बादलों की वकालत करते हुए उन्हें आगे लाने का प्रयास भी करते हैं। "धुआँ" वास्तव में अपने ही समाज का आकलन कर उसे जीवन से जोड़ने का नाम है। धुआँ धुआँ है, जब वह चारो ओर फैलता है तो अपने प्रभाव से सबको झकझोर देता है। आँखों में एक प्रकार का करकरा पन पैदा करता ही है, यह अपने कसैलेपन और प्रदूषण से मानवीय सांस और प्रस्थागों को भी नहीं सोडता धरती से लेकर गगन तक इस प्रकार छा जाता है कि जीवन जगतको भी विलीन हो जाती है। कुछ दिखाई ही नहीं देता। उससे प्राप्त ताको कष्ट होता ही है, वह उससे भी आगे बढ़कर जड़ता को भी अपने प्रभाव से कलुषित करना नहीं छोड़ता। कवि को दृष्टि में यह धुआँ वह धुआँ नहीं है जो की आग से उठता है। अपितु यह धुआँ तो मनुष्य की अपनी स्वार्थ की, दम्मा को छल की, कपट की तथा द्वेष-विद्वेष की आग से उत्पन्न होता है और छा जाता हैं पूरे समाज में अपनों पूरी निष्ठा के साथ सारी अच्छाईयों को लोलता हुआ। इन । चिंतित है। धुएँ के बादलों का न तो कोई मौसम होता है, न कोई समय, यह तो मानव मन को शैतानियत के कारण उठता ही रहता है। भले ही समूची मानवता त्रस्त हो। उसे इसकी कोई चिंता नहीं। परंतु कैप्टिन गिल का कवि इस धुएँ से बहुत कवि का भाव बोध अपनी संवेदनाओं के कारण इतना दुःखी है कि वह उस धुएँ की कालिख को स्वयं ढो लेना चाहता है अपने कंधों पर। परन्तु वह अपने समाज को समाज के टूटते हुए मानवीय मूल्यों को बचा लेना चाहता है।
धुएँ के माध्यम से विद्वान कवि ने इतनी लम्बी कविता का ताना बाना बुना है जो अपनी सार्थकता से कवि के सृजन बोध को भी सार्थक सिद्ध करता है। इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि धुएँ को एक प्रतीक के रूप में कवि ने प्रयुक्त किया है और कवि का वह प्रतीक बोध अपने में निश्चित ही समीचीन है। वर्तमान सदी में मनुष्य का कदाचरण इतना प्रदूषित हो चुका है कि जिधर देखो, उधर सामाजिक विसंगतियों का धुआँ उठता हुआ दिखाई दे रहा है। इस धुएँ को न तो कोई सीमा है और न ही कोई सरहद। वह धुएँ को मानव मन को कलुषता के कारण पूरे ही समाज को अपनी जालिम बाहों में भर लेना चाहता है। कवि इस धुएँ की सीमा रहित अंतहीन उड़ान से परेशान है और उसकी मानवीय चेतना की छटपटाहट ही तो इस अच्छी कविता का परिणाम है। वह चाहता है इस धुएँ को नष्ट कर देना और धरती पर लाना चाहता है, इंसानियत जो समाज को दे सके एक नया स्वरूप जीवन का और जीवन को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का। कवि की यह लालसा ही तो उसकी इस कविता की सृजनहार है। कैप्टिन गिल का कवि अपने में दु:खी तो होता है, परंतु वह निराशा नहीं होता। वह जानता है कि ये धुएँ के बादल निश्चित हो एक न एक दिन हटेंगे और धरती पर एक ऐसी रौशनी आएगी फिर ऐसी जो फिर से संसार को देगी एक नया युग, मानव का मानवता का और मानवता धुएँ को उड़ा देगी धरती के हर छोर से कैप्टिन गिल का कवि वास्तव में ही अपने एक हाथ में शस्त्र लिए हैं और दूसरे में शास्त्र। चूंकि गिल एक सैनिक अधिकारी रह चुके हैं। उन्होंने सीमाओं में सजग रहकर युद्ध भी लड़ा है और सैनिक छावनियों में अपने चिन्तन से जूझें भी हैं। तभी तो वे इतने भावुक कवि हैं। उनके मन में मीरा के मन की भक्ति सरीखी भावना भी है और कबिरा जैसी अटपटी वाणी भी। यह "धुआँ" जैसी कविता तभी तो वे रच सके हैं। हालांकि यह कविता नितांत अतुकांत है, छन्द से परे हैं, परन्तु उसकी लयात्मकता कहीं भी नहीं टूटी है। यहाँ कारण है कि कविता सही में अपने अच्छे काव्य बोध का परिचायक है।
भाषा और भाव दोनों की दृष्टियों से प्रस्तुत कविता अपने में सटीक बन पड़ी है। यही कारण है कि यह कविता सामाजिक तथा सांस्कृतिक हलचलों अपने केन्द्र में रख कर उन आन्तरिक सूत्रों को तलाशने का काम करती है, समाज में इस प्रकार के धुएँ को प्रश्रय देते हैं, उसे फैलाने के जाल रचते हैं। प्रस्तुत कविता अपने में स्वतः स्फूर्त है। उसकी दृष्टि पूरी तरह से धुएँ के आधारभूत कारणों पर जाती हैं और उन्हें खंडित करने की इच्छा शक्ति को अपने में जगाती है। तभी तो यह कविता अपने में एक जीवन मूल्य का काम करती है। कविता साम्प्रदायिकता, भय, आतंकवाद, ऊँच-नीच की संकुचित भावना, वर्ग भेद, भाषा, जाति तथा आपस के विकारों से पूरी तरह आहत है। वह देखती है कि समाज में शोषण, किस प्रकार लोगों की मानवीय चेतना को तोड़ कर रख देता है। कवि चाहता है अपने समाज को अच्छे मूल्यों के लिए खड़ा होना चाहिए। तभी तो वह हर प्रकार के धुएँ से संघर्ष करने के लिए तैयार रहता है। अपने शिल्प और कथ्य के स्तर पर अपनी पूरी मुस्तैदी के साथ। कवि ने धर्म के उन्मादी आंतक के धुँए को अपने बचपन में देखा है ये कविताएँ उसी परिणाम हैं
श्री गिल बहुत ही संवेदनशील कवि हैं। उन्होंने सेना में रहकर भी समाज को बड़े ही निकट से देखा है। समाज की विसंगतियों को भोगा है। लोगों क को परखा है और उसे सहा भी है। यही कारण है कि उनकी कवि करूणा की अनुभूति का एक बुनियादी तत्व देखने को मिलता है जो उनके प्रयोग को एक अच्छी दिशा देता है जो कविता की दशा को जागरूक करने समर्थ है।
आज के समय में साहित्य सृजन का फलक अत्यन्त विस्तृत और वैविध्यपूर्ण हो गया है। वह युग में परिवर्तन लाना चाहता है। वह धरा से दानवता को मिटाना चाहता है। परम्परा को भी नहीं छोड़ना चाहता है। श्री गिल ऐसे ही सृजनधर्मी हैं। इनकी आम आदमी के दर्द को उकेरती हैं। उनको चिन्ता में मनुष्यता कैसे बचे शान्ति और सुख का आविर्भाव कैसे हो। वास्तव में एक अच्छे कवि का यह दायित्व भी होता है। उन्हीं के शब्दों में देखिए
"क्या हमने कभी कोशिश की है
सीखने की इस धुएँ के भाव से को सदियों से बह रहा है
मानवता के जीवन में।
यदि नहीं तो समय आ गया है
सीख लो कुछ सीख
इस लम्बे मानव इतिहास से
जिसमें मानवता का अंश बहुत आंशिक है।
नहीं तो यह हवा, जो प्रकृति की देन है
कहीं गुम होकर न रह जाए
इस धुएँ के बादलों में पूर्णतः
जिसमें सिर्फ दम घुटता है।"
अन्त में इस अच्छी कविता के लिए, मैं कविवर भाई गिल की बहुत सराहना करता हूँ कि उन्होंने इस आपाधापी के युग में भी समय निकाल कर इस तरह के काव्य, प्रयोग कोया आयाम दिया है। ये इसी तरह लिखते रहें और दिखते रहें। माँ सरस्वती का इसी तरह उत्तरोत्तर आगे बढ़ाती रहे। उनकी शब्द यात्रा अनवरत गतिशील रहे, इसी विश्वास के साथ उन्हें पुनः बधाई।
डॉ. हुकुमपाल सिंह विकल
29, इन्दिरा कॉलोनी
बाग उमरावदुल्हा, भोपाल