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भूल-ग़लती / अनिल अनलहातु
Kavita Kosh से
मेरे भीतर से चलकर
वह मुझ तक आया
और एक ज़ोर का
तमाचा लगाकर
चलता बना ।
मैं अवाक्, हतबुद्धि, फ़ाजिल सन्नाटे में था,
कि मेरी आस्थाओं की नग्नता देख
वह रुका
बड़े विद्रूप ढंग-से मुस्कराया
औ’ आशंका और सम्भावनाओं
के चन्द टुकड़े
उछालकर मेरी ओर
चला गया ।
स्मृतियों के जँगलाती महकमे से
निकल तब
एक-एक कर चले आते
और बैठते जाते
खेत की टेढ़ी-मेढ़ी मेड़ों पर पँक्तिबद्ध
यहाँ से वहाँ
जँगल से लेकर गाँव के सिवान तक,
और शुरू हो जाती अन्तहीन बहसें ।
सुबह से रात और रात से सुबह तक
तब तक, जब तक
मन्दिर की दरकी दीवारों के पार
गर्भ-गृह के सूनेपन मे सिहरता ईश्वर
कूच कर जाता है और मस्जिद से आती
अज़ान की आवाज़ों में
ख़ुदा ठहर-सा जाता है ।