प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार से सम्मानित
दरअसल
कोई भी अछूता नहीं रहता इससे
मुहावरे से लेकर
पशुओं के सपनों तक
यह कहाँ नहीं है
इसे भी उगाया धरती ने
अनाज के साथ एक ही पेट से
इसे भी मिला
इसके हिस्से का खाद-पानी
कभी यह हरा था
इसी ने बचाया दानों को
वक्त पड़ने पर
मौसम के थपेड़ों और कीड़ों से
फसल के साथ कटकर
यह भी खलिहान में आया
अलगाया गया दानों से बड़ी मेहनत
और कुशलता के साथ
अब लादकर ले जाया जा रहा है
इसे
पूरी सड़क घेरकर चलती डगमग
ट्रैक्टर ट्रॉलियों पर
पता नहीं क्या होगा इसका
किसी मिल में काग़ज़ बन जायेगा
या फिर
यह थान पर खड़े किसी भूखे पशु की
ज़िन्दगी में शामिल होगा
बहरहाल
इतना तो साफ है
कि इसे भी सहेज रहे हैं लोग
दानों के साथ
इस दुनिया में
वे सार भी बटोर रहे हैं
और थोथा भी
शायद बचे रहने के लिए
दोनों की ज़रूरत है उन्हें।
-2004-