भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोग अति दुःख नरक के मूल / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 (राग नूरसारंग-ताल त्रिताल)

 भोग अति दुःख नरक के मूल।
 भजो न इन्हहिं कबहुँ इंद्रिय-मन सुख-निमि करि भूल॥
 उपजत अघ अति, बिबिध दुःख, भव-याधि भोग के संग।
 मानव-जीवन कौ सुचि-सुन्दर बिगरत सगरौ रंग॥
 नित कुत्सित धन-मान, कीर्ति-पद की इच्छा अनिवार।
 नित बिस्वास-हनन, छल, मिथ्या, कपट, असद्‌‌ व्यवहार॥
 राग-द्वेष, द्रोह-निर्दयता, नित्य बिषम उर दाह।
 नित्य अधर्मपरायनता, नित असन्मार्ग-‌उत्साह॥
 नित्य बैर, हिंसा-प्रतिहिंसा, नित्य बितंडावाद।
 नित दुख, नित असांति-चिंता-भय, नित ही सोक-बिषाद॥
 फलसरूप अति मरन दुःखमय, मरनोर दुख-भोग।
 नीच जोनि, दारिदर्‌य, रोग-दुख, नरकजोनि-संजोग॥
 या तैं जे तजि भोग दुःखमय, सेवत हरि सुखरूप।
 ते मानव पावत भगवत्सुख दिव्य, अनन्य, अनूप॥