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भोरकोॅ एकान्त छन / राज मोहन शर्मा
Kavita Kosh से
गेलै रात तेॅ ऐलै भोर; धीरें-धीरें बहै बयार !
पोखरी आ नदी के पानी सिहरेॅ लागलै बारम्बार ।
कहाँ उतरलोॅ छै एखनी तक राजहंस पंछी रोॅ गोल,
कहाँ नाव छै, कहाँ नवरिया; असरा में छै लहर-हिलोल ।
नै ऐलोॅ छै घैलोॅ लेने रूप सुनदरी के समुदाय,
नै चरवाहाँ वंशी टेरै, नै जेरा के जेरोॅ गाय !
बैठलोॅ छी चुपचाप अकेलोॅ निरजासौ छी अजगुत रूप,
नया-नया भावोॅ के भावटोॅ प्रकृतिं समेटेॅ छै अपरूप !
बहकी जाय छै हवा छुवी केॅ, कखनू-कखनू हमरोॅ केश,
नया अर्थ लै केॅ चमकै छै; कखनू यै जिनगी के भेस !
ई विराट एकान्त साधना के छन जीवन में अनमोल,
कत्तेेॅ खिन टिकतै शीतोॅ के बुन्नी रं, बिकतै बिन मोल !
कुछ छन में उषा के लालीं दुलरैतें कमलोॅ के फूल,
यही छनें देतै कर्माे ॅ के गाड़ी के पहिया में तूल !