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मँज़िल / सुभाष राय
Kavita Kosh से
जो लीक छोड़कर चलते हैं अनवरत
अपने सपनों का पीछा करते हुए
सिर्फ़ वे ही गाड़ पाते हैं
नये शिखरों पर विजय के ध्वज
सपनों के पाँव ही रौन्द पाते हैं मँज़िल को