मउसम पतझड़ के / मुनेश्वर ‘शमन’
ठहर गेलय हे बगिया में मउसम पतझड़ के।
फूल-काली के चेहरा पर कुम्हलाहट हे।।
तपे लगल हे धरती के कोमल छाती।
धूर भरल चल रहल हवा अति उत्पाती।।
केतना अपराधी हे, ई बदलल मउसम।।
झुलस रहल जिनगी के सब जोगल थाती।
बन्द करे इया खोले खिड़की-दरवाजा।
भीतर-बाहर एके नियर अकुलाहट हे।।
हाय! लगल हे आग, झोपड़ी लहक रहल।
धूप-धाह के बीच जे रोजे आइल पलल।।
सोर-सिरप, बुझबय के उचित उपाय कहाँ।
अइसन हालत कि कहलो नत्र जाय कहल।।
खबर जान के, महल तो सहजे कह दे हे।।
व्यर्थ बेवस्था पर जन के झुंझलाहट हे।।
घट हे खाली, सूख रहल पनघट सारा।
जने- तने रे भटकय अदमी बेचारा।।
भूख-प्यास जमले- गहराले ही जाहे।
मिरगतिरिसना मिलल, गायब जीवन- धारा।।
पसरल घोर निरासा हे, दुख के जमघट हे।
जिनगी में अखनी कते कडुआहट हे।।