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मकान / श्याम सुशील
Kavita Kosh से
दिन भर को
ढोकर
जब वापस लौटता हूं
घर हलचल नहीं करता
देखकर-
एक उसांस
छोड़ता है
जिसे जहरीले तमाचों सा
तड़ातड़ पड़ता हुआ
झेलता हूं।
चेहरा
नीला पड़ जाताहै...
और फिर
मकान के मलबे को
ओढ़कर
मरा-सा
सो जाता हूं।
सुबह अखबार की सुर्खियों में
सब कुछ होता है
मगर यही नहीं होता कि-
एक मकान ने
रात भर
आदमी को
किस तरह मारा...