भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मकान की शरण में / कंस्तांतिन कवाफ़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीते कल हवाखोरी करते एक सीमावर्ती
पड़ोस में, मैं गुज़रा उस मकान के नीचे जहाँ
अक्सर जाता था जब बहुत जवान था मैं ।
वहाँ प्रेम ने अपनी अचंभित करती मज़बूती से
जकड़ ली मेरी देह ।

और बीते कल
ज्यों मैं गुज़रा पुरानी सड़क के बगल से
दुकानें, बाज़ू-पटरियाँ, पत्थर,
दीवालें, बाल्कनियाँ और खिड़कियाँ
बनी थी सुंदर एकाएक प्रेम के जादूजोर से;
वहाँ असुंदर कुछ भी नहीं बचा था ।

और ज्यों मैं खड़ा रहा वहाँ, और दरवाज़े को देखा,
और खड़ा रहा, और झुका मकान तले,
मेरे होने ने लौटा दिया वापस सारा
जमारखा आनंदमय ऐन्द्रिय जज़्बा ।


अँग्रेज़ी से अनुवाद : पीयूष दईया