मकान बेचकर लौटे पिता / उत्पल बैनर्जी
अपना मकान बेचकर आए पिता
बहुत दिनों तक उदास रहे
बहुत उदास ...
माँ के गुज़रने पर
वह घर फिर ‘घर’ नहीं रहा
महज़ एक ताले में क़ैद होकर रह गया था
उसका सारा उल्लास
दीवारों पर उदासी की काई जम चुकी थी
उनके काले धब्बे पुराने ज़ख़्मों की तरह लगते थे
जिन्हें साफ़ करने की कोशिश करते
तो कच्चे घावों की तरह पलस्तर उखड़ जाता
घने अवसाद की धुन्ध थी
जिसमें झींगुरों का गीत विलाप की तरह लगता
ऐसे घर को बेचकर आए पिता
बहुत दिनों तक घर की ही तरह गुमसुम रहे।
यहाँ अजाने शहर में
कभी-कभार जब कोई उनसे हालचाल पूछता
तो चौंककर कहते -- क्या करें बड़ी मजबूरी थी
इसलिए बेचना पड़ा!!
मुसीबतों में उसी घर ने पनाह दी थी,
अकसर आह भरकर कहते --
यहाँ सबकुछ है -- बेटा बहू पोती प्यारी-सी ...
मगर क्या करें घर की बहुत याद आती है
लगता है नींव में हम ही गड़े हैं
छतें हमारे ही कन्धों पर टिकी हुईं
ध्यान से देखो तो आज भी
सीढ़ियों पर बैठी पत्नी का गुमसुम चेहरा दिखाई देता है
बरसों पहले संगीत सीखते बच्चों की
मद्धिम किलकारियाँ सुनाई देती हैं
और बुधवारिया हाट के पैट्रोमैक्स का उजाला
मन के अन्धेरे में झिलमिला उठता है
लोग आज भी पहचान लेते हैं भीड़ में!
अपनी बेचैनी दूर करने के लिए पिता
टी०वी० चला लेते
उनका टी०वी० देखना एक रस्म की तरह होता
पूछने पर अकसर नहीं बता पाते
कार्यक्रमों के नाम, उनकी विषयवस्तु
और प्रायः टी०वी० बन्द करना भूल कर
कोई किताब पढ़ने लगते,
यह एक भुलावा था ... छल था अपने ही खि़लाफ़,
निर्जन दुपहरी में वे गाते कोई राग
उसकी मिठास में बहुत बारीक़ रुलाई घुली रहती
थकी आँखों में वियोग का झीना प्रतिबिम्ब उभर आता
और पुराने दिनों की स्मृतियाँ आवाज़ काँपतीं।
वे अकसर रात को
अपनी पोती को कहानी सुनाते
और उसके सो जाने के बाद भी
जाने किन स्मृतियों में खोए
आँखें बंद कर देर तक कहानी सुनाते रहते .....!!