मगही अप्पन बोली / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा
लिखबै, पढवै बोलवो करवै मगही अप्पन बोली,
कथा-कहानी कविता से है भरल मगह के झोली।
मगधराज से आय तलक ई कैलक सगर इंजोर,
जन-जीवन माटी से सब दिन मगही के गठजोड़।
शांति-अहिंसा के निरंजना तट पर उगल प्रकाश,
फल्गू से गंगा तक एकरे रहलै सदा विभास।
गाँव-गाँव में अभियो मगही के सगरो हे चर्चा,
बोलो मगही एकरा में केकरो नै लगतो खर्चा।
लिखवै रोज, गीत गैबै सब रचवै खूब रंगोली,
पढ़वे-लिखवै बोलवो करवै मगही अप्पन बोली।
सोंधी गंध मगध माटी के फैलल फल्गू-गंगा,
मगही के साहित्य भाव एकरा में हे एक रंगा।
फोन करो मगही में भाई जहाँ-तहाँ सब पाती,
मगही बोलो शीस तान के गरब से फूलल छाती।
गंवई-गाँव सगर फैलल है मगही गंध-गुलाब,
शंखनाद अब करो जलावो सब मगही के आग।
फैलल है सगरो वितान पर अब है मगही भाषा,
ई मजदूर, किसान, वृद्ध, वनिता के भी है आशा।
हिन्दी के विकास ले मगही सबदिन से हमजोली,
पढ़वै, लिखवै, बोलवो करवै मगही अप्पन बोली।