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मजदूर की लड़ाई / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
अभी सूरज भी नहीं निकला होगा
और तुम जा जाओगे
तुम्हारे जागते ही
जाग जायेंगे
ये पेड़-पक्षी और
धूलभरे रास्ते
तुम हॅंसते हुए
काम पर बढ़ोगे
और देखते ही देखते
यह हॅंसी फैल जायेगी
ईंट- रेत और सीमेंट की बोरियों पर
जिस पर बैठकर
हॅंस रहा होगा तुम्हारा मालिक
वह थमा देगा तुम्हारे हाथों में
कुदाल, फावड़े और बेलचे
बस शुरू हो जायेगी
तुम्हारी आज की लड़ाई
इस लड़ाई में
खून नहीं पसीना गिरेगा
जिसे सोखती जायेगी धरती
एक रूमाल बनकर बार-बार
जीत होगी दो मुट्ठी चावल
एक थकी हुई शाम
घर लौटने का सुख
और बच्चों की याद
बच्चे कभी नहीं पूछेंगे
तुम कौन सा काम करते हो
वे समझ जायेंगे
तुम्हारी झोली देखकर
हमेशा की तरह
तुम आज भी
हार कर लौटे हो ।