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मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं / ग़ालिब

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मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं

मगर ग़ुबार हुए पर हवा उड़ा ले जाये
वगर्ना ताब-ओ-तबाँ<ref>ताकत और शक्ति</ref> बालो<ref>पंख</ref>-पर में ख़ाक नहीं

ये किस बहिश्ते-शमाइल<ref>स्वर्ग-समान</ref> की आमद-आमद है?
के ग़ैर-जल्वा-ए-गुल<ref>फूलों की छवि के इलावा</ref> रहगुज़र में ख़ाक नहीं

भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता
असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं

ख़याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब है मयकश
शराबख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं

हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी<ref>बरबादी</ref> से शर्मिंदा
सिवाय हसरत-ए-तामीर<ref>निर्माण की हसरत</ref> घर में ख़ाक नहीं

हमारे शे'र हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के 'असद'
खुला कि फ़ायदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं

शब्दार्थ
<references/>