मत कर प्रार्थना / विनोद शर्मा
जन्माष्टमी का दिन
मंदिर में भक्तों और श्रद्धालुओं की भीड़
हवाओं में बिखरी हुई अगरबत्तियों की महक
देवी-देवताओं की मूर्तियों के सामने बैठे हुए
आंखे मूंदे हुए, सिर झुकाए, हाथ जोड़े हुए
प्रार्थना करते हुए लोग।
हर कोई मांग रहा है अपने इष्ट देवता से वर
पूरी हो सके ताकि उसकी इच्छाएं
सहसा मन में आता है एक खयाल-
”चलो हम भी इन भक्तों के साथ हो लें
भक्ति की इस बहती हुई गंगा में अपने हाथ धो ले।“
तभी भीतर से एक आवाज आती है
जो रोकती है मुझे ऐसा करने से
और मेरी चेतना के कानों में फुसफुसाती है-
”मनोरंजन चाहिए तो ठीक है, जा
शामिल इन लोगों में हो जा
जम कर आनंद ले भक्तिसंगीत और रास का
मगर अगर तू वाकई चाहता है
प्रभु से, पाना कोई अनमोल वस्तु
तो छोड़ करना प्रार्थना
साधना कर साधना
भूल जा मांगना ईश्वर से कोई वर
साधना कर, तपस्या कर
जानना चाहता है क्यों?
तो समझ ले, इस ताले की चाबी घूमती है यों-
यदि ईश्वर नहीं है तो बात खत्म
और अगर है तो वह विद्यमान है
सृष्टि के कण-कण में
जो तेरे अन्दर भी है और बाहर भी
वह तुझको, तेरी योग्यता, तेरी इच्छाओं को
तुझसे ज्यादा जानता है
तेरे मन के खोट को भी बखूबी पहचानता है
और रहा तेरे सुख-दुख का हिसाब-किताब
तो वो तो उसने कब का कर लिया होगा
वरना अभी तक तो कर चुका होता वह हस्तक्षेप
इसलिए
अरे ओ, इक्कीसवीं सदी के अर्जुन!
जीतना है यदि जीवन का युद्ध
तो दायरा अपने ज्ञान का
अपनी सोच का बढ़ा
कर्म के धनुष पर प्रतिभा का बाण चढ़ा
और खींच कर लगन की डोरी की प्रत्यंचा
लक्ष्य को दे भेद।
इसलिए मांग मत, छोड़ करना प्रार्थना
साधना कर साधना
विवश कर दे प्रभु को अपनी कठोर तपस्या से
देने के लिए तुझे तेरा मनचाहा वर
छोड़ करना प्रार्थना
साधना कर साधना।