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मथुरा / विमल राजस्थानी

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चरमोत्कर्ष कलाओं का ऐसा अन्यत्र नहीं है
यदि है स्वर्ग कहीं तो सचमुच वह बस, यहीं, यहीं है
अक्षय वट-सी पुण्य-पुंज व्रज-भूमि, स्वर्ग से सुन्दर
जिसकी रज मस्तक पर धर तर जाते सुर-नारी-नर
योगेश्वर की जन्म भूमि, सौभाग्य-प्रसून लिखा है
शत-सहस्र स्वर्गों से भी ऊँचा स्थान है
घुटनो के बल चले ब्रह्म, यमुना पद तल धोती हैं
वन्दन करते है त्रिदेव, देवियाँ प्रणत होती हैं
धन्य यहाँ के गिरि-वन-प्रान्तर, धन्य कुंज,पंथ,गलियाँ
कण-कण अब भी अमृत-स्वरो में गाते विरूदावलियाँ
मिट्टी के अणु-अणु से मोहक गंध मधुर आती है
मादक वंशी-ध्वनि अग-जग को माहित कर जाती है
मस्तक पर देवता चरण-रज चढ़ा धन्य हाते है
वीथि-वीथि में लोट-लोट तन-मन की सुधि खोते हैं
यह पावन यमुना का तट,मथुरा निहारती जल में
ऐसा अनुपम तीर्थ नहीं कोई भी तो भूतल में
कारागार!तुम्हारे प्रस्तर-खंड भाग्यशाली हैं
जिनने अनायास ईश्वर की शिशु झाँकी पा ली हैं
कंस नही यदि दुराचार की सीमा लाँघा करते
कैसे क्षीर-सिन्धु-वासी प्रभु पृथ्वी पर नग धरते
जब-जब हैं देखते ईश-अन्याय धरा नर होता
तब-तब युग त्रेता होता,तब-तब युग द्वापर होता
अपना दूत विशेष धरा पर प्रथम भेज देते हैं
अनाचार को तीव्र बना जो अमित तेज देते हैं
पराकाष्ठा पर पहुँचा देते जब कुटिल अनय को
स्वामी का आदेश,असीमित कर देते जन-भय को
सब के मिलित पाप से दबी धरा डोला करती हैं
नियति सुकाल-कपाट-अर्गला तब खोला करती हैं
कंपित हो आकाश सिसकता,अवनि विलख राती हैं
मनुज-रूप ईश्वर की तब नारी जननी होती हैं
लीला-धाम बना जग को,प्रभु त्राण दिला देते हैं
दूत भक्त को,अपने हाथो,अमृत पिला देते हैं
निज कर्तव्य निभा कर सेवक स्वर्ग लौट जाता हैं
युग-युग से इस धरा-धाम पर यही दृश्य आता हैं
बीते कोटि कल्प पर अब भी घृणा भार ढा़ेते हैं
प्रभु पद सेवा लीन,सहन की शक्ति कहाँ खोते हैं
राम और रावण के ‘रा-रहस्य को किसन जाना
कंस,कन्हैया के ‘क‘-भेद को कब जग ने पहचाना
जो ज्ञानी-ध्यानी हैं वे ही समझ इसे पाते हैं
‘रा‘-‘क‘ के राका रहस्य पर झूम-झूम जाते हैं
यह योंही होता न, सुनिश्चित यह विधान हैं विधि का
गोपनीय कुछ छिपा हुआ है आशय करूणानिधि का
अस्तु,कंस!तुम धन्य,त्राण के सुत्रधार बने तुम
वंशीवाले की मधु-लीला का जयकार बने तुम
तुम प्रणम्य हो,तुम नमस्य हो,तुम निमित हो जय के
प्रभु-इच्छा से ही होते पार्षद अवतार अनय के
साधुवाद ओ कंस!धरा को धाम बनाया तुमने
प्रभु के हाथो मरण वरण कर बने मोक्ष-अधिकारी
युग-युग तक स्मरण रखेगे सुर-किन्नर,नर-नारी
प्रबल प्रतापी भूप,राजधानी मथूरा अति सुन्दर
भव्य-दिव्य प्रासाद, खिले ज्यो धरती पर इन्दीवर
चिकने,धूल-विहीन स्वच्छपथ,चम-चम करती गलियाँ
सुन्दर,मनहर गेह,लग रही झूठी तारावलियाँ
द्वार-द्वार पर मणि-मुक्ता के वन्दनवार टँगे हैं
भीति-चित्र दीवारो पर के विधि ने स्वयम् रँगे हैं
हाट-बाटमें श्री-समृ़िद्ध की आभा छिटक रही हैं
केशर-कस्तुरी,मेवा-मिश्री से पटी मही हैं
पय,पय-निर्मित भाँति-भाँति के मिष्टान्नों की ढे़री
रंग-विरंगे फल-फूलों की हैं भरमार घनेरी
छवि-चित्रित मयूरपुच्छो से,सतरंगी वस्त्रो से
जगमग है मंडियाँ अल्प आयुधों, अस्त्र-शस्त्रो से
अभिनव सुखद विपुल श्रृंगार-प्रसाधन भरे पड़े हैं
हीरे,मणि,मुक्ताओं के कंठे पुखराज जड़े हैं
स्वर्णाभूषण, रत्नों की ढे़रियाँ,स्वर्ण-मुद्राए़़़़ँ
भाँति-भाँति के गंध-द्रव्य,सौरभ से,मत्त बनायें
मूर्तिकार,चल-चित्रकार नैसर्गिक छटा उकेरें
भाँति-भाँति की कला-वस्तुओं के हैं ढ़ेर घनेेरे
व्यस्त सभी क्रेता-विक्रेता,हलचल बहुत मची है
सुर-नर किन्नर,क्रेताओं में सुरपति,स्वयम् शची है
अति असीम आनन्द हर्ष,उल्लास,विनोद भरा हैं
मथुरा में जैसे कुबेर का रत्न-कोष बिखरा हैं
नर-नारी,अमूल्य वस्त्रो से शोभित,सजे-धजे हैं
कोई नही कुरूप,लगन से विधि ने सब सिरजे हैं
सभी सुख-सम्पन्न,न अर्थाभाव कहीं किंचित हैं
नही एक भी है मनुष्य जो सुख-सुविधा-वंचित हैं
भाव-जगत में भले कष्ट होता,पीड़ा होती हो
प्रिय-वयोग में भले विरहिणी सुबक-सुबक रोती हो
रोग,प्रभाव आयु का,मृत्यु भले कुहराम मचा दे
नियति-चक्र औ‘काल भले मानव को नाच नचा दे
होनी पर तो स्वयम् बह्य का वंश भी नहीं चला हैं
किन्तु,यहाँ लक्ष्मी न अस्थिर और नहीं चपला हैं
सजी-धजी युवतियाँ अप्सराओं को लग रही हैं
पुष्प-गुच्छ-सी हाट-बाट,घर-आँगन सजा रही हैं
टिकी त्रिवलियों पर कुंचकियों की अनमोल धरोहर
पुलक विखेरे गज-गामिनियों के रून-झुन नुपुर-स्वर
बंकिम चितवन युवा-मनो को वेध-वेध जाती हैं
आकुल आलिंगन करने को गजभर की छाती है
चहँुदिशि शिष्ट वनोद-हास्य के तारो की झंकृति हैं
इन्द्र-धनुष सी मनोहारिणी मथुरा की संस्कृति हैं
यमुना-जल में राजमहल की परछाही झलमल हैं
पंखुरियों पर रत्न-दीप बाले ज्यो खिला कमल हैं
लहर चूमती वृक्षावलियों पर गुंजित कलरव हैं
खग-कुल-दल का वृन्त-वृन्त पर,नृत्य-गान अभिनव हैं
फुदक-फुदक कर मधुर स्वरो में रवि-वंदन करते है
चंचु बदन पर फेर प्रकृति का अभिनंदन करते है
तीन और परिखाएँ,तल ऊपर तक भरा-भरा है
एक ओर कालिन्दी का कैशार्य सहज निखरा है
दस गज ऊँची प्राचीरें हैं,ठौरे-ठौरे गुम्बद हैं
प्रहरी प्रांशु सजग गर्वीले, शस्त्रगार वृहद हैं
प्राचीरों के भीतर सुन्दर,मनहर कई महल हैं
जिनकी शोभा का वर्णन करना रे!नहीं सहल हैं
पुष्प-वाटिकाओं में झुंड उड़ा करते अलियों के
वन-निकुंज लगते ज्यो दल झलमल तारावलियों के
महलो से कुछ दूर मध्य में सभागार अति सुन्दर
एक सहस्त्र आसनो वाला अति विशाल अभ्यंतर
स्वर्ण-रजत-मंडित,नृप का,सिंहासन अति मनहर हैं
रत्न-जड़ित नृप-छत्र,मोतियों की झलमल झालर हैं
ध्वनि-अवरोधक युक्त,नृपति का चिन्तावेश्म,जटिल हैं
गुप्तद्वार जनसाधारण की आँखो से ओझल हैं
अनुशासन का ओज व्याप्त है, धर्म-नीति छायी हैं
पद-सेवा तज,क्षीरदधि से, रमा उतर आयी हैं
न्यायी राजा के प्रताप, यश की कह रहा कहानी
उठती-गिरती लोल लहरियों में यमुना का पानी
सारा नगर घिरा ऊँची,प्रस्तर की ,प्राचीरो से
सिंहद्वार अति भव्य जड़ित मणि-मुक्ताओ,हीरो से
आठों पहर बज रहे मंगलवाद्य,हर्ष नर्तित हैं
सुरपुर की नर्तनशाला-सी गृह-गृह में झंकृति हैं
चरमोत्कर्ष कलाओं का ऐसा अन्यत्र नहीं है
यदि हैं स्वर्ग कही तो सचमुच वह बस,यही,यही हैं
इसी स्वर्ग में राजनर्तकी मदालसा बड़भागी
कोटि-कोटि जन जिसके नर्तन-गायन के अनुरागी
जिसका ढ़लता यौवन भी मलयज के कोष लुटाये
जड़-चेतन जिसकी छवि-द्युति पर बार-बार बलि जाये
हुए एक शत वर्ष बु़द्ध को गये,स्मृति टटकी है
इसी काल में विस्मयकारी घटना एक घटी हैं