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मदन-मथन के चरन सुमिर मन / स्वामी सनातनदेव

राग भैरव, चौताल 6.9.1974

मदन-मथन के चरन सुमिर मन।
मुनि मन भवन बसहिं जे सन्तत, तिनही को तू कर नित चिन्तन।
तिनहि परसि पावन भइ सुरसरि, करत सतत पतितनकों पावन।
जिनकी कृपा तरी मुनि-पत्नी, सन्तन के संतत जो निज धन॥1॥
करहिं अपावनकों पावन जो, जिनहिं परसि ब्रज-रज अध-गंजन।
जिनको ध्यान धारि नित मुनिजन पावहिं परम-चरम पद पावन॥2॥
अलिवत् जिन में रमहिं रसिकजन, तजहिं न जिनहिं कबहुँ एकहुँ छिन।
जिनहिं पाय चपला हूँ अचला कर तू सदा तिनहि को सेवन॥3॥
अज-भव से जगनायक जिनके पायक ह्वै सुमिरहिं नित छिन-छिन।
जिनकी कृपा सुलभ दुरलभ हूँ, काहे न सरन हेात तिनके मन॥4॥
भज-भज तिनहिं न तज एकहुँ पल, सन्तत कर तिनहिं को वन्दन।
तिनहिं पाय कछु रहत न पावन जग पावन ते ही तव निज धन॥5॥