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मदारी की लड़की / भारतेन्दु मिश्र
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मदारी की लड़की
सपनों की किरचों पर
नाच रही लड़की ।
अपने ही
झोंक रहे चूल्हे की आग में
रोटी-पानी ही तो है इसके
भाग में
संबंधों के अलाव ताप
रही लड़की ।
ड्योढ़ी की
सीमाएँ लाँघ नहीं पाई है
आज भी मदारी से बहुत मार
खाई है
तने हुए तारों पर काँप
रही लड़की ।
तुलसी के
चौरे पर आरती सजाए है
अपनी उलझी लट को फिर फिर
सुलझाए है
बचपन से रामायन बाँच
रही लड़की ।