मधुशाला / भाग 6 / हरिवंशराय बच्चन / अमरेन्द्र
तारा-मणि सें सजलोॅ नभ ठो
बनी उठेॅ मधु रोॅ प्याला,
सीधा करी भरैलोॅ जाय ऊ
सागर केरोॅ जल हाला,
हवा मातलोॅ बनी केॅ साकी
ठोरोॅ पर जाय छलकैलेॅ,
सागर पाटोॅ रं जे चैड़ा
विश्व बनेॅ ई मधुशाला । 31
ठोरोॅ पर कोय्यो रस उभरेॅ
लगेॅ मतर जी केॅ हाला,
हाथोॅ में कोय्यो बरतन ऊ
लगेॅ राखले छै प्याला,
हर सूरत साकी-सूरत में
बदली केॅ ही आबै छै,
आँखोॅ रोॅ आगू में कुछुवो
आँखों में छै मधुशाला । 32
पौधा आय बनी छै साकी
लै-लै फूलोॅ रोॅ प्याला,
भरलोॅ होलोॅ जिनकोॅ भीतर
परिमल-मधु-सुरभित हाला,
भौरो के दल माँगी-माँगी
रस रोॅ मदिरा पीयै छै,
झूमै, झपकै मोॅद मतैलोॅ
उपवन की छै-मधुशाला ! 33
गाछ रसीला सब साकी रं
जानोॅ मंजर केॅ प्याला,
छलकै छै जेकरा सें बाहर
मादक गंधोॅ रोॅ हाला,
पीबी जे मतवाली कोयल
कूकै छै डाली-डाली,
सब वसन्त में अमराई में
जागी जाय छै मधुशाला । 34
मंद झकोरोॅ के प्याला में
मधुरितु के सौरभ-हाला,
शीतल पवन पिलाबै भरी-भरी
बनी मदोॅ सें मतवाला,
लब्बोॅ हरका पत्ता, गाछो
नैका डाली, लोॅत सिनी,
छकी-छकी केॅ झूमै झुकलोॅ,
मधुवन में छै मधुशाला । 35
साकी होय आबै छै भोरे
जबेॅ अरुण ऊषा बाला,
तारा-मणि मढ़लोॅ चादर दै
मोल में लै धरती हाला,
अनगिन किरणों के हाथोॅ सें
जे पीबी चिड़ियाँ पागल;
रोज भोररियाँ खुला प्रकृति में
मुखरित होबै मधुशाला । 36