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मन! तू जहाँ-तहाँ क्यों अटकै / स्वामी सनातनदेव
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राग ललित पंचम, तीन ताल 25.8.1974
मन! तू जहाँ-तहाँ क्यों अटकै।
स्याम-सुधा की त्यागि माधुरी विष्य-गरल क्यों गटकै॥
तेरो प्रीतम है तोही में, अनत वृथा क्यों अटकै।
घरको देव त्यागि तू काहे वृथा भ्रान्तिमें भटकै॥1॥
सुनत न तू समुझावन मेरो, झट चुपके सों सटकै<ref>खिसक जाता है</ref>।
प्रीतमसों नहिं नेह निभावत तासु सुरति झट झटकै॥2॥
जब देखो तब विषय-विपिनमें जहाँ-तहाँ तू लटकै।
प्रीति-पियूष-पान तजि पामर! मोह मद्य पी मटकै॥3॥
अब तज यह विडम्बना बौरे! काल-व्याल सिर लटकै।
होगी यही चातुरी तेरी जो तू वाकों झटकै॥4॥
अरे! सदा रह स्याम-संग अरु सुरति-सुधा पी डटकै।
यासों सकल उपाधिन सों बचि रहि है तू बे-खटकै॥5॥
शब्दार्थ
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