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मन की बातों को / प्रभात पटेल पथिक

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मन की बातों को मन में लिए रह गए,
हो सका प्रेम अपना, न शायद सफल।

तेरी सूरत को उर में बसाए हुए,
सारा यौवन बिताया था मैंने शुभे!
हारकर सारी दौलत तेरी चाह में,
मन ये तुझपर लगाया था मैंने शुभे!
किन्तु जब उस घड़ी छोड़कर तुम चली-
स्वर अबोले रहे, नैन मेरे सजल।
मन की

राह उस दिन से दोनों की विपरीत थी,
फिर भी तुम मुझको नित याद आते रहे।
मिल सके हम दुबारा न फिर सामने,
तेरी सुधियों से हम नित नहाते रहे।
खोजते फिर रहे हैं कि आखिर तेरे-
ऐसे क्या प्रश्न थे, हो सके जो न हल।
मन की

मन अभी भी तेरी सुधि में खो जाता हैं,
लौट आने की आशा सँजोये हुए।
मेघ बरसेंगे फिर से मिलन के यहाँ,
होंगे पुष्पित, प्रणय-बीज बोये हुए।
स्वाति की एक अमिय-बूँद के पान को-
मन-पपीहा रटे, आजकल-आजकल।
मन की