मन के दो टुकड़े / मोहन अम्बर
अपनी नज़रों में जीवित हूँ जग की नजरों में मरता हूँ
मोरध्वज से क्या कम हूूँ जो मन के दो टुकड़े करता हूँ।
धरती मेरी अधनंगी माँ आँसू जिसके पास बहुत हैं
जिसके रिक्त नदी पनघट का मुझको भी, आभास बहुत है
पर ऐसा घन-बेटा हूूँ मैं कर्मों पर विश्वास बहुत है,
कभी हरेंगे इस आशा में मरूस्थलों पर भी गिरता हूँ
मोरध्वज से क्या कम हूूँ जो मन के दो टुकड़े़े करता हूँ।
मेरे मित्र मुझे तुम थाहो झूठा हूँ या सच कहता हूँ,
जहाँ मित्रता के आँसू हों वहीं पसीना बन रहता हूँ,
इतने पर भी प्राण न भरता तो इतना ज़्यादा सहता हूँ,
दुश्मन का दिल दुख जाने की गलती करने से डरता हूँ।
मोरध्वज से क्या कम हूूँ जो मन के दो टुकड़े़े करता हूँ।
कृष्ण नहीं हूँ पिछले कल का हूँ नवयुग का नया सारथी,
जीत उसे मैं कह न सकूंगा जो सचमुुच में एक हार थी,
कर्म भावना दो पूजाएँ कान्हा से कब निभी आरती?
मथुरा वाली रूक्मा संग रह राधा का भी मन भरता हूँ,
मोरध्वज से क्या कम हूूँ जो मन के दो टुकड़े़े करता हूँ।
जन्मा हूँ किसलिए बाग़ में पागल काँटे नहीं समझते
द्वन्द्व शब्द से अनजाना जो उस पाटल से व्यर्थ उलझते,
फिर भी मेरे इन आवेशित अधरों पर दो शब्द उमगते,
शूल चुभाने वाले प्रभु सुन तुझ हित ख़ुशबू बन झरता हूँ,
मोरध्वज से क्या कम हूूँ जो मन के दो टुकड़े करता हूँ।