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मन के भेद / गीता शर्मा बित्थारिया

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हर लड़की जो पहनती है
चटख रंग के परिधान
वो छिपाना चाहती है चटख रंगों में
अपनी हिस्से की उदासी

हर लड़की जो झरते पारिजात से
सजा लेती है अपने केश
वो छुपा लेती उसकी सुगंध में
अपनी विरह वेदना

हर लड़की जो खिले अमलतास से
बना लेती स्वर्ण आभूषण
वो अपनी गूंथ लेती है हंसली में
अपने सारे दु:ख पीड़ा

वो लड़की जो कड़कती है
जैसे बिजली गिरी हो आसमान
अपने शोर में छिपा लेती है
अपने सारे भय

वो लड़की जो बहती है
पहाड़ी नदी सी तोड़ती राह की चट्टान को
वो बता देती है तेज प्रवाह से
अपने इरादे

हर वो लड़की जो लगती है
सब कुछ उड़ाती आंधी के बबंडर सी
वो उखाड़ देना चाहती है
सदियों से जमे अतीत के अत्याचार

हर वो लड़की जो हंसती है
किसी मनोरम झरने सी
अपनी हंसी में छिपा रही होती है
अपने अंतरतम में बहती अश्रुधार

वो लड़की जो कचनार कली से
बना रही है फूलहार
वो बांट रही है फूलों के संग
अपनी प्रतीक्षा

वो लड़की जो खिली खिली सी
महक रही है जूही सी
वो सबको बता रही है
अपनी अनछुई प्रीत का पता

वो लड़की जो बीन रही है जंगल में
पलाश और महुआ
वो बांट देना चाहती है
प्रेम की मादकता

हर वो लड़की जो बना रही है द्वार पर
कई रंगों से सुंदर रांगोली
अपनी बिछा रही है निर्वाध
खुशियां के रंग

हर वो लड़की जो बांध रही है द्वार पर
महकते फूलों से सुंदर बंदनवार
वो स्वजनों के साथ सुरक्षित
मना रही है त्यौहार

वो लड़की जो निहार रही है चांद को
एकांत नीरवता से एकटक
वो अपने परदेशी पिया से
बतिया रही है

वो लड़की जो बैठी है कालिंदी के तट
अकेली गुमसुम राधा सी
वो अपने प्रिय मधुसूदन के आने की
जोह रही है वाट

वो लड़की जो शिला बन
देख रही है सदियों से किसी राम की राह
वो निर्दयी संसार में
ढूंढ रही है संवेदना

पूछना नहीं पड़ेगा तुम्हें लड़कियों से सकते
जान सकते हो तुम हर लड़की की मन भेद
बस देखो होते उद्घाटित रहस्य
साक्षी भाव से
उनके आस पास घटित क्रिया कलाप