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मन में लगन लगै मोहन की / स्वामी सनातनदेव

राग भूपाली, तीन ताल 18.6.1974

मन में लगन लगै मोहन की।
रहै न अग-जग की कोउ आसा, भूलै सुधि तन-मन की॥
मोहन बिनु न सुहाय कबहुँ कछु, रुचि न रहै धन-जन की।
मोहन ही में लगै लगन बस या तन के कन-कन की॥1॥
जित देखे दीखै मोहन ही, रंगै वृत्ति नयनन की।
मोहन बिनु न होय अग-जगमें वृत्ति कोउ गो-गन की<ref>इन्द्रियगण की</ref>॥2॥
जन-जन में मोहन ही भासै, रुचि राखे जन-मन की।
काहूसों नहिं दुखै दुखावै, ममता रहे न तन की॥3॥
भीतर मोहन बाहिर मोहन, मिटै ओट या तन की।
‘मैं-तू’ की भी भ्रान्ति न भासै, छलकै छवि मोहन की॥4॥

शब्दार्थ
<references/>