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मन ये हुमक रहा गाने को / नईम
Kavita Kosh से
मन ये हुमक रहा गाने को,
किंतु उमर ये बरज रही है।
बहुत दिनों के बाद अकासे
बिजली रह-रह चमक रही है।
चलो चलें उस ठाँव जहाँ कर लें मनमानी,
धारा में धँसकर, चौतरफ उलीचें पानी;
बूँद बुदबुदा हुई कि उसमें
सृष्टि समूची लरज रही है।
नदी, ताल, पोखर, झरने सब बौराए से,
घर से निकले हुए आप क्यों लौट रहे हैं चौराहे से?
मेघ झमाझम ताल दे रहे
कजरी, ठुमरी गमक रही है।
सोच-समझ को झिड़की देकर हम अपनी पर आ जाएँ,
छोड़ गुनगुनाना ये अबके, जी भरकर गाना गा जाएँ।
बूँद-बूँद रस- आसब पीकर
जिजीविषा भी बहक रही है।