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मन हार गया / नरेन्द्र दीपक

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कहता था यह कर लूँगा वह कर लूँगा
दुख के पहाड़ हंस कर काँधे धर लूँगा
लिख कर स्वीकार कर रहा हूँ प्रियवर
मेरा वह मन हार गया।

टूट गया वह स्वप्न प्राण जो नेह पला था
सदा तुम्हारी परछाँई के साथ चला था
बिथुर गया वह इन्द्रधनुष जाने कब का ही
जो कि हमारी मुस्कानों के रंग रला था

सोचा था बाधाओं को हँस कर झेलूँगा
तूफ़ानों में नौका तट तक खे लूँगा
ऐसा कुछ हुआ उमर की पूनम को
मावस का तम मार गया

मन ज्यादा दुखता है सूने में गाने से
या बीती बातांे को फिर फिर दुहराने से
आँसू तो पहिले से ही तय थे किस्मत में
क्या होना था इनके उनके समझाने से

मुझको दुनिया की कुछ ऐसी साख मिली
जिधर हाथ डाला मुट्ठी में राख मिली
जिसके दुख को अपना समझा वह ही
मेरे घाव उघार गया

अब क्या होना है अक्सर उदास रहने से
पत्थर से जाकर अपना सुख-दुख कहने से
नींव दगा देने पर ही यदि आमादा हो
कब तक बच सकती भला इमारत ढहने से

समझाया है यूँ तो मन समझाने को
मैं शायद जन्मा ही हूँ दुख गाने को
उजले लोगों की महफ़िल में आकर
अपयष मुझे पुकार गया