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मनुष्य का धरातल/ प्रताप नारायण सिंह

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तुमने कहा-
आओ ऐसे धरातल पर खड़े हों,
जहाँ न कोई पंथ हो, न संप्रदाय,
न कोई जाति हो, न ध्वज,
केवल मनुष्य की धड़कने
एक-दूसरे को पहचानती हों।

पर इतिहास की जड़ें
हमारे पाँव पीछे की ओर खींचती हैं,
भाषाओं को
हमें अलग करने का
माध्यम बना दिया जाता है,
और हमारे चेहरे
किसी सत्ता की किताब में
भिन्न-भिन्न तरह से
अंकित कर दिए जाते हैं।

कभी हमें पशु
कभी देवता,
तो कभी
असुर कहा जाता है।

शब्द एक सीमा है,
पर जीवन
उससे बहुत बड़ा।

चुप्पी भी
बहुत कुछ सोचती है;
मुँह-आँख बंद होने पर भी
मस्तिष्क की ज्योति जलती रहती है|

भीतर का भूगोल
बाहर के परिदृश्य को गढ़ता है।
हम अपने भीतर बदलेंगे
तो बाहर की दुनिया
नई भाषा बोलेगी।