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मरण / रामधारी सिंह "दिनकर"

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मरण

लगी खेलने आग प्रकट हो
थी विलीन जो तन में;
मेरे ही मन के पाहुन
आये मेरे आँगन में।

बन्ध काट बोला यों धीरे
मुक्ति-दूत जीवन का-
‘विहग, खोलकर पंख आज
उड़ जा निर्बन्ध गगन में।’

पुण्य पर्व में आज सुहागिनि!
निज सर्वस्व लुटा दे,
माँग रहे मुँह खोल पिया
कुछ प्रथम-प्रथम जीवन में।

आज कहाँ की लाज बावली?
खोल, चीर-पट तन से,
रहे न टुक व्यवधन, नग्न
घुल-मिल जा कनक-किरण में।

देख रहा ज्यों स्वप्न बीज
ऋतुपति का हिम के नीचे
छिपी हुई गोतीत विभा त्यों
कोलाहल-क्रन्दन में।

उठी यवनिका आज तिमिर की,
अंकुर उगा विभा का;
चमक उठी वह पगडंडी जो
प्रिय के गई भवन में।

पूछ रहा था जिसकी सुधि
वन्दी! अब तक उडुगण से,
मुक्त घूमकर खोज उसे
अब फूल-फैल त्रिभुवन में।

ठौर-ठौर हैं मरण-सरोवर
बने पिया के मग में,
धोकर श्रान्ति, स्वस्थ हो पन्थी!
लग जा पुनः लगन में।