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मरसिया ख़ुद का / जगदीश नलिन

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बहुत पहले का क़िस्सा है।बेकारी के दिनों में मैं बेज़ार हो गया था।अपने को मुर्दा ही समझने लगा था। एक दिन आधी रात को गाजे-बाजे के साथ चाँदनी में एक वृद्ध की अर्थी को ले जाते देखा तो मुझे लगा कि मेरी ही अर्थी जा रही है और यह मर्सिया लिखा गया।

चले लोग शहनाइयाँ फूँकते ये
वहम ये ज़नाज़े पे मैं जा रहा हूँ ।

भरा आसमाँ चान्द-तारे जगे है,
ज़मीं सुस्त-सोई जहाँ बेख़बर है,
किनारे लहर से बचाके ये आँसू,
मैं दरिया का दामन भिगोने चला हूँ ।

खिले फूल के मैंने घूँघट उठाए,
हवा की ये शोख़ी मुझे जानती है,
छलकते हुए जाम का मुन्तज़िर हूँ,
पीया है बहुत अब पिलाने चला हूँ ।

बड़े शौक से ज़िन्दगी जी रहा था,
नहीं कोई शिकवा न कोई गिला था,
अन्धेरे में ख़ुद बन दिया जल रहा था,
तराने मैं गुरबत के गाने चला हूँ ।

कफ़न के उजाले पे शबनम की बून्दें,
झरे फूल पेड़ों से मुर्दे पे आके,
जवाँ दिल को कुदरत विदा दे रही है,
मैं गुलशन की रौनक लिए जा रहा हूँ ।

चले लोग शहनाइयाँ फूँकते ये
वहम ये ज़नाज़े पे मैं जा रहा हूँ ।