भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मरे हुए आदमी की दुनिया / मृदुला शुक्ला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं एक मरा हुआ आदमी हूँ
मरे हुए आदमी की दुनिया
हमेशा बेहतर होती है जिन्दा लोगों की दुनिया से

एक मेरे मौत की खबर भर ,मुझे रिहा कर देती है
तमाम झूठे सच्चे इल्जामात से
हर दुनियावी अदालत से

तमाम यार दोस्त जो कभी सवाल करते थे
मेरे सही जवाबों पर
आज मिल बैठ जवाब ढूंढते है
मेरे हर गलत सवाल का

प्रेयसियां जो प्रगल्भा थी
मध्या नहीं, अब तो
मुग्धा सी फिरती हैं ,बावरी सी

उनकी कभी ना आने वाली
चिट्ठियों के इंतज़ार में
तमाम सब्जीवाले ,फेरी वाले
या यूँ कहो ,मेरे दरवाजे से गुजरने वाला हर मुसाफिर
मुझे डाकिये सा लगा पूरी उम्र

सुना है ! आज कल वो हर रोज
डाक खाने में डाल आती हैं एक ख़त
बेनाम ,पते का

वो तमाम लोग जो नज़रअंदाज करते थे
मेरा जीता जागता वजूद
वो झिंझोड़ कर जगा जाते हैं मुझे
मेरी कब्र में भी

मेरी बीवी मेरे होने पर
नहीं रही सधवा कभी भी
आज काबिज है मेरी बेवा के हक़ पर
पूरे रसूख से

मैं खुद को देखना चाहता था
अपने पिता की
बच्चों की चमकती आँखों में ,जीते जी
आज हूँ मैं वहां ,गालों पर
लुढकता सा, बहता सा

तो सुनो !ऐ जिंदा लोगों की दुनिया के
तमाम मरे हुए लोगों
ये दुनिया बदलती नहीं कविता लिखने से
धरने से प्रदर्शन से किसी भी वाद से ,

अगर तुम्हे चाहिए बेहतर दुनिया
तुम्ही जीना है सचमुच ,
तो ये झूठी मौत छोड़कर तुम्हे सचमुच का मरना होगा