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मरे हुए देश की बंजारन / अर्चना कुमारी
Kavita Kosh से
जानना इस कदर
कि जानना लफ्ज फिर अंजाना रह जाए
चाहना कुछ सपनों का
भारी-भारी सा है इन दिनों
अहसासों की लाश उभर आती है
आंख की नदी पर
मन चीखता है
कंठ बोलता नहीं
ये चाहना, जानना
मानना जरुरत है आदमी की
और लाचारी भी
कि एक दिन यूं ही खलिश लिए मर जाना
अकुलाना बंद मुठ्ठी
और हथेलियां खाली देखकर
रास्ते के उस छोर पर धरी है आखिरी चाहना
बीच से गुजरते हुए कान मूंदना मजबूरी
कि बेइतहां शोर के बीच
कोई गाता है गीत
शायद प्रेम गीत
मरे हुए देश की बंजारन
और कहता है रक्काशा मोहब्बत को
उसके बोल चुभते हैं मुझे
पर सफर के आखिरी दौर में
हारी हुई चाहतें
उसके आगे फैलाती हैं आंचल
तुम लिख सको तो लिख दो फिर कोई चाहत
मैं मरे हुए देश से लौटी बंजारन हूं।