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मल्हार का दीपक / अमरेन्द्र

घन गरजा, बिजली भी कड़की, वर्षा नहीं हुई
अभी-अभी मेघों से नभ था भरा हुआ; है खाली
पुरबैया को कौन दे गया चुपके से है गाली
कुछ भी बोल नहीं पाती है, लगती छुईमुई ।

कैसी-कैसी इच्छाएं ले सावन यह आया था
नाचेगा मोरों के संग में, जंगल में, पर्वत पर
मेघों के कुछ पंख लगा कर अपने सिर के ऊपर
याद नहीं कि कब मल्हार को, कजरी को गाया था।

नहीं बांस के कोंपल फूटे, जूही नहीं खिली
नहीं दिखीं बगुलों की पाँतें, सिसका बहुत चकोर
आँसू से गीले खेतों की आँखों के हैं कोर
महिनों तपी धरा, जब आया सावन; आग मिली।

सूखे थे आषाढ़-आद्र्रा, सूखा सावन, अब क्या
कालरात्रि की तपस्विनी-सी बनी हुई है आद्या ।